मैं बेशरम का पेड़ हूँ
खूब पहिचाना मुझे
मैं बेशरम का पेड़ हूँ
जी हाँ
काटकर
तोड़कर
मोड़कर
तुम चले गए मुझे
नाज़ुक हालत में छोड़ कर
मैं आड़ा तिरछा पड़ा रहा
बंज़र ज़मीन पर
गाड़ा अँधेरा ओढ़ कर
मुझे
मरहम की ज़रुरत नहीं
खुद
मरहम का ढ़ेर हूँ.
खूब पहिचाना मुझे
मैं बेशरम का पेड़ हूँ.
रोज़ कली खिले
भ्रमर पराग चूसे
मुझे क्या ?
इसे लोग मेरी भूल तो कहेंगे
मेरे दुखते छितरते जख्मों को
कम से कम
बेशरम का फूल तो कहेंगे
मुझे
हमदम की ज़रुरत नहीं
खुद ही
दम का पेड़ हूँ.
खूब पहिचना मुझे
मैं बेशरम का पेड़ हूँ.
चमक हो या सादगी हो
चहरे पर
ताज़गी हो / दर्द हो / टीस हो / कसक हो
कहर हो;
रेगिस्तान हो / शमशान हो / चमन हो / वीरान हो
गाँव हो या शहर हो
मुझे घर का मलाल नहीं
मैं जवान हूँ / वृद्ध हूँ
या अधेड़ हूँ
मैं बेशरम का पेड़ हूँ.
जंगल की सूची में
मेरा नाम
है या नहीं
यह मुझे नहीं मालूम
यदि होगा भी तो बहुत नीचे
जहाँ प्रष्ठों के हांसिये
दिखते हैं
आँखें तरेरे दांत भींचे
लोग कुछ भी कहैं
मैं अपने
ईमान-ओ - धरम का पेड़ हूँ.
खूब पहिचाना मुझे
मैं बेशरम का पेड़ हूँ.
मेरे जख्मीं तनों से
बांधा गया है/ मरखने बैलों को
मैंने तहे-दिल से सजाया है
उपेक्षित पार्कों
और सुनसान गैलों* को
फिर भी तो लोग कहते हैं
कि मैं
अहम् का पेड़ हूँ.
जी नहीं
मैं बेशरम का पेड़ हूँ.
खूब पहिचाना मुझे
मैं बेशरम का पेड़ हूँ.
(* गैलों------- गलियों / रास्तों )
-- नारायण सिंह निर्दोष