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Saturday, July 24, 2010






















 तुम आती हो


तुम आती हो
अपने आने से पूर्व
मुझमें तैनात कर देती हो शब्दों की बटालियनें ;

तुम आती हो
मेरे भीतर मचा देती हो--हुर्दंग
देती हो मेरे भीतर ---बयान / बेचैनी .

कोई देखे
मेरी बेचैनी सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से
ले   उसके तमाम --चित्र
आमंत्रित  हैं --सभी मित्र.

कविता की प्रक्रिया से गुज़रते हुए
मैं नहीं करता / दावा
समाज- कल्याण , वर्ग- चेतना
या किसी के अहंकार को
 कर रहा हूँ फ़ना
हाँ  इतना अवश्य है
                   कि मैं
अपनी बेचैनी शांत कर रहा हूँ.
                                                                     ----   नारायण सिंह निर्दोष

1 comment:

  1. हाँ इतना अवश्य है
    कि मैं
    अपनी बेचैनी शांत कर रहा हूँ।

    एक ईमानदार स्वीकारोक्ति ...........

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