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Saturday, July 24, 2010






















 तुम आती हो


तुम आती हो
अपने आने से पूर्व
मुझमें तैनात कर देती हो शब्दों की बटालियनें ;

तुम आती हो
मेरे भीतर मचा देती हो--हुर्दंग
देती हो मेरे भीतर ---बयान / बेचैनी .

कोई देखे
मेरी बेचैनी सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से
ले   उसके तमाम --चित्र
आमंत्रित  हैं --सभी मित्र.

कविता की प्रक्रिया से गुज़रते हुए
मैं नहीं करता / दावा
समाज- कल्याण , वर्ग- चेतना
या किसी के अहंकार को
 कर रहा हूँ फ़ना
हाँ  इतना अवश्य है
                   कि मैं
अपनी बेचैनी शांत कर रहा हूँ.
                                                                     ----   नारायण सिंह निर्दोष



अर्ध्य

खड़ा  हूँ 
कमर तक पानी में. 

उठाता हूँ 
जितना निर्मल जल
अपने दो हाथों से --- अंजुरी भर 
उढेल देता हूँ वापस  सब नदी  में.

छू कर माथा 
हर बार 
खाली रह जाते हें सूर्य की
उपासना में  जुड़ते   दो हाथ.
नदी में
यह कौन बैठा   है लगाकर घात.

हाँ,
कब से दे रहा हूँ
अर्ध्य
मैं अपने सूर्य को.

Sunday, July 18, 2010

नदी: चार कविताएँ
(१९८४)

(१)

नदी!
क्या आवश्यक है / बहते ही रहना
हर पल ?
सम्बन्धों के इस रेत में
आओ
बैठे रहें / कुछ पल
सटा कर
 एक दूजे की  पीठ से पीठ
बेशक
हम कुछ न कहें.
तदोपरांत
देह में समेंटे  स्फूर्ति
लौट जाऊँगा  मैं काम पर
और तुम;    बेशक  पुनः बहती रहना.   
( किन्तु )  सिर्फ बहते  रहना  ही नहीं है
तुम्हारी ---नियति.
(२)
नदी!
कलाबाज़ी करता है
तुम्हारे भीतर / जब  मगरमच्छ
तब------ मैं होता हूँ.
मैं होता हूँ
ले रहा / तुममें पनाह
जब----- दौड़ती हैं  तुम्हारे भीतर
अपनी
 जान बचातीं  नन्हीं  मछलियाँ.
मैं
पल भर मैं उतर जाता हूँ / उस पार
चलते है जब चापू
तुम्हारी देह पर
नदी!
जब तुम सूखती हो 
तब
तुम्हारे भीतर बैठा मैं
तुम्हारे  लौट आने की कामना करता हूँ.


(3)

नदी
निरंतर बहती हुई
चुपचाप.
नदी!
तुमसे गुजरते हुए
तुम्हारे पुल के दो सिरों  के बीच
मन
कहीं खो जाता है .
यकायक
यह क्या हो जाता है ?
कि हर बार
 शेष बचता है / तुम्हारी  लहरों को
निगाह भर
न  छू पाने का  पश्चाताप  .    
नदी!
तुम बेशक रखती होंगी
हिसाब
कि मर्तबा कितने   निकला हूँ तुम्हारे पार
तुम्हें लाँघ कर.

(४)

मैं होता हूँ
पानी होता है
नदी मैं होता है और बहुत कुछ
नदी में
यदि नहीं होता / तो वह होती  है ---नदी.
अपने तटों के
निरंतर कटाव से पीड़ित / अपने ही तट पर बैठी वह
नाप रही  होती है  मुझमें ----कौतुहल.
मेरी
रगों में दौड़ता ---अपौरुष
और यह कि
 कितनी आसानी से हो सकता हूँ मैं ---- निर्वस्त्र.
दफ्तर से
जुआघर से / बाज़ार से / अवैध  प्यार से
मिले तनाव;
या फिर
यकायक मिली ख़ुशी का गट्ठर लादे
लौटना
और कूद पड़ना नदी में
लहरों से
हब्शियों- सा लड़ना
हो कर तरोताजा / चले जाना
दिखा कर पीठ नदी को
यही होता आया है सदियों से
मैं क्षमा प्रार्थी हूँ -- नदियों से.

------ नारायण सिंह निर्दोष




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Friday, July 9, 2010


नारायण सिंह निर्दोष
[शारदा साहित्य एवं ललितकला मंच, आगरा  के संस्थापक-अध्यक्ष( 1979 ). "धूप एक बरामदे की" व तरुनिका -- काव्य संकलन  का संपादन . दिल्ली जल बोर्ड में सहायक अभियंता .]

  • दरअसल  
दो दशक से
कुछ खास न लिख पाने का मतलव यह नहीं कि-
                                          मैं न था,
                                         मुझमें कविता न थी,
  या फिर/ जैसे  बदल चुका था सब कुछ
                                          दरअसल / कुछ  नहीं  बदलता
                                          समय के साथ
                                          बदलता है तो सिर्फ कविता का स्वरुप
                                          तभी
                                          उसका होना  होता है सदैव प्रासंगिक.
 सच है
 कविता नहीं रही
अब मनोरंजन व सुखद अनुभूति का साधन.
वह आदमी कि तरह
 पूर्णतः  आ  है सड़क पर
उपेक्षित.
 कविता
अब उबलने लगी है
आदमी के ज़ेहन में.
अब वह
पकड़कर आकाओं का  गलेबंद
सड़क पर घसीट कर / पीट कर
 मांगेगी
 उनकी तमाम अय्याशियों का हिसाब.
अभी पनपेंगे
न जाने /  कितने ही "वाद"
और  कविता  बोलेगी --
इन्कलाब     ---- जिंदाबाद.
                                        (  आगे मेरी सिलसिलेबार कविताएँ पढियेगा--- निर्दोष )