नारायण सिंह निर्दोष
[शारदा साहित्य एवं ललितकला मंच, आगरा के संस्थापक-अध्यक्ष( 1979 ). "धूप एक बरामदे की" व तरुनिका -- काव्य संकलन का संपादन . दिल्ली जल बोर्ड में सहायक अभियंता .]
- दरअसल
कुछ खास न लिख पाने का मतलव यह नहीं कि-
मैं न था,
मुझमें कविता न थी,
दरअसल / कुछ नहीं बदलताया फिर/ जैसे बदल चुका था सब कुछ
समय के साथ
बदलता है तो सिर्फ कविता का स्वरुप
तभी
उसका होना होता है सदैव प्रासंगिक.
सच है
कविता नहीं रही
अब मनोरंजन व सुखद अनुभूति का साधन.
वह आदमी कि तरह
पूर्णतः आ है सड़क पर
उपेक्षित.
कविता
अब उबलने लगी है
आदमी के ज़ेहन में.
अब वह
पकड़कर आकाओं का गलेबंद
सड़क पर घसीट कर / पीट कर
मांगेगी
उनकी तमाम अय्याशियों का हिसाब.
अभी पनपेंगे
न जाने / कितने ही "वाद"
और कविता बोलेगी --
( आगे मेरी सिलसिलेबार कविताएँ पढियेगा--- निर्दोष )इन्कलाब ---- जिंदाबाद.
मन उल्लास से भर गया। इतने वर्षों के बाद भी उसी ऊर्जा का उफान और उन्हीं तेवरों की अभिव्यक्ति देखकर ऐसा होना स्वाभाविक है।आप प्लेटफार्म पर होंगे तो मैं तो बिना टिकिट भी घूमता रह सकूँगा। अब आएगा मजा
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