नदी: चार कविताएँ
(१९८४)
(१)
नदी!
क्या आवश्यक है / बहते ही रहना
हर पल ?
सम्बन्धों के इस रेत में
आओ
बैठे रहें / कुछ पल
सटा कर
एक दूजे की पीठ से पीठ
बेशक
हम कुछ न कहें.
तदोपरांत
देह में समेंटे स्फूर्ति
लौट जाऊँगा मैं काम पर
और तुम; बेशक पुनः बहती रहना.
( किन्तु ) सिर्फ बहते रहना ही नहीं है
तुम्हारी ---नियति.
(२)
नदी!
कलाबाज़ी करता है
तुम्हारे भीतर / जब मगरमच्छ
तब------ मैं होता हूँ.
मैं होता हूँ
ले रहा / तुममें पनाह
जब----- दौड़ती हैं तुम्हारे भीतर
अपनी
जान बचातीं नन्हीं मछलियाँ.
मैं
पल भर मैं उतर जाता हूँ / उस पार
चलते है जब चापू
तुम्हारी देह पर
नदी!
जब तुम सूखती हो
तब
तुम्हारे भीतर बैठा मैं
तुम्हारे लौट आने की कामना करता हूँ.
(3)
नदी
निरंतर बहती हुई
चुपचाप.
नदी!
तुमसे गुजरते हुए
तुम्हारे पुल के दो सिरों के बीच
मन
कहीं खो जाता है .
यकायक
यह क्या हो जाता है ?
कि हर बार
शेष बचता है / तुम्हारी लहरों को
निगाह भर
न छू पाने का पश्चाताप .
नदी!
तुम बेशक रखती होंगी
हिसाब
कि मर्तबा कितने निकला हूँ तुम्हारे पार
तुम्हें लाँघ कर.
(४)
मैं होता हूँ
पानी होता है
नदी मैं होता है और बहुत कुछ
नदी में
यदि नहीं होता / तो वह होती है ---नदी.
अपने तटों के
निरंतर कटाव से पीड़ित / अपने ही तट पर बैठी वह
नाप रही होती है मुझमें ----कौतुहल.
मेरी
रगों में दौड़ता ---अपौरुष
और यह कि
कितनी आसानी से हो सकता हूँ मैं ---- निर्वस्त्र.
दफ्तर से
जुआघर से / बाज़ार से / अवैध प्यार से
मिले तनाव;
या फिर
यकायक मिली ख़ुशी का गट्ठर लादे
लौटना
और कूद पड़ना नदी में
लहरों से
हब्शियों- सा लड़ना
हो कर तरोताजा / चले जाना
दिखा कर पीठ नदी को
यही होता आया है सदियों से
मैं क्षमा प्रार्थी हूँ -- नदियों से.
------ नारायण सिंह निर्दोष
.
मैं क्षमा प्रार्थी हूँ -- नदियों से
ReplyDeleteयही तो है एक कवि के हृदय की संवेदना। बहुत अच्छी रचनाएँ हैं ।