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Saturday, July 24, 2010




अर्ध्य

खड़ा  हूँ 
कमर तक पानी में. 

उठाता हूँ 
जितना निर्मल जल
अपने दो हाथों से --- अंजुरी भर 
उढेल देता हूँ वापस  सब नदी  में.

छू कर माथा 
हर बार 
खाली रह जाते हें सूर्य की
उपासना में  जुड़ते   दो हाथ.
नदी में
यह कौन बैठा   है लगाकर घात.

हाँ,
कब से दे रहा हूँ
अर्ध्य
मैं अपने सूर्य को.

1 comment:

  1. अच्छी रचना.......... पर अंत में कुछ अधूरापन सा लग रहा है........जैसे कथ्य में से कुछ छूट गया हो .......अधूरापन मेरे समझने में भी हो सकता है ......

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