तुम आती हो
---- नारायण सिंह निर्दोषतुम आती हो
अपने आने से पूर्व
मुझमें तैनात कर देती हो शब्दों की बटालियनें ;
तुम आती हो
मेरे भीतर मचा देती हो--हुर्दंग
देती हो मेरे भीतर ---बयान / बेचैनी .
कोई देखे
मेरी बेचैनी सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से
ले उसके तमाम --चित्र
आमंत्रित हैं --सभी मित्र.
कविता की प्रक्रिया से गुज़रते हुए
मैं नहीं करता / दावा
समाज- कल्याण , वर्ग- चेतना
या किसी के अहंकार को
कर रहा हूँ फ़ना
हाँ इतना अवश्य है
कि मैं
अपनी बेचैनी शांत कर रहा हूँ.
हाँ इतना अवश्य है
ReplyDeleteकि मैं
अपनी बेचैनी शांत कर रहा हूँ।
एक ईमानदार स्वीकारोक्ति ...........