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Sunday, January 30, 2011

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विरोध
अचानक
मुझे क्या सूझता है
क़ि मैं
तलाशने लगता हूँ
घर के भीतर एक हथियार.

मसलन,
तेज़ करने लगता हूँ
            साग कटाने का चाकू.

दीवार से
रगड़ता   हुआ अपनी पीठ   
दौड़ता  हूँ मै
खिड़की-खिड़की /  द्वारे-द्वारे
दिन-रात
 चाकू लिए हाथ.

यद्धपि
जानते हुए भी
 क़ि चाकू
नहीं कर सकेगा बाल-बांका भर
स्टेनगन से मेरी सिम्त आती हुई

दनदनाती  गोली का
फिर भी
 मै कर राह हूँ  अपना   विरोध    दर्ज.
हाँ,  मुझे लग गया है
                       बढ-बढाने का मर्ज़.
                                                  ************

2 comments:

  1. चारों कवितायेँ प्रभावशाली हैं, खासकर 'विरोध' एवं 'कश्मीर' ।

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  2. एक सच्ची कविता।
    http://yuvaam.blogspot.com/p/1908-1935.html?m=1

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